नाटक-एकाँकी >> सामाजिक मूल्यों के एकांकी सामाजिक मूल्यों के एकांकीगिरिराजशरण अग्रवाल
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प्रस्तुत है सामाजिक मूल्यों के एकांकी...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
स्वार्थ के संबंधों, व्यवहार की विषमताओं और मानव मन की मजबूरियों में
पथराए आपसी रिश्तों के फलस्वरूप हुए सामाजिक विघटन का पीड़ाजनक परिदृश्य
प्रस्तुत करते हैं और समय के सत्य से साहसपूर्ण साक्षात्कार कराते हैं ये
एकांकी। परंपरागत आदर्शों और जीवन-मूल्यों के प्रदूषण से निकली आधुनिक
रूढ़ियों में जकड़े सामाजिक सम्बन्धों की सार्थक समीक्षा और चिंतन के नये
आयाम प्रस्तुत करते हैं।
पार्क में एक शाम
देर से नेताजी पार्क में बैठा हुआ हूँ।
मेरे बिलकुल सामने भारत के महान् सपूत नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की आदमकद प्रतिमा है, काले पत्थर की। किसी सिद्धहस्त मूर्तिकार द्वारा तराशी गई शानदार प्रतिमा। एक नजर मैं पत्थरों में ढली हुई नेताजी की मुखाकृति की ओर देखता हूँ और फिर अचानक मेरा ध्यान डूबती हुई साँझ के धुँधले-धुँधले दृश्य की ओर चला जाता है। आता हुआ अंधकार धरती पर फैले उजाले को परास्त कर रहा है।
यह शाम दिन-रात की भौगोलिक व्यवस्था की शाम ही नहीं है, प्रकृति के विधानानुसार यह शाम सूरज के अस्त होने पर उत्पन्न होने वाली शाम ही नहीं है, मुझे लगता है यह शाम उच्च मानवीय आदर्शों और गौरवपूर्ण सामाजिक मान्यताओं के अन्त में होने की शाम भी है। मैं एक बार फिर नेताजी की सुन्दर एवं वैभवशाली प्रतिमा की तरफ देखता हूँ।
मेरे नीचे सफेद पत्थर से बनी हुई बैंच है। बैंच पर इस समय मैं निपट अकेला हूँ। टूटे-टूटे बिखरे-बिखरे विचार मेरे मस्तिष्क के सागर में छोटी-छोटी नौकाओं की तरह तैर रहे हैं। अचानक मेरा ध्यान स्वयं अपने अस्तित्व पर केन्द्रित हो जाता है। मैं अपने नीचे पत्थर की कठोरता का अनुभव करता हूँ। कितना निर्दयी और भावहीन है यह पत्थर ! अपने दुखते हुए शरीर को आराम देने के लिए मैं बाईं ओर करवट लेता हूँ। सोचता हूँ, शायद वह पाषाण युग अभी समाप्त नहीं हुआ है, जिसे मानव-जाति अपने विकास में लाखों वर्ष पीछे छोड़ आई है। पहले यह पत्थर मानव के हाथ में था और अब उसके भीतर है।
अपने सामने से गुजरते हुए मुझे पत्थर के अनेक लोग दिखाई देते हैं। पथरीली बैंच से भी अधिक जड़ और भावविहीन ! पाषाण युग से चलकर आदमी किस तरह स्वयं पाषाण होता जा रहा है, सोचकर एक टीस-सी मेरे मन में होती है। लेकिन तभी इस सोच को एक और सोच काटती हुई गुजर जाती है कि भूमिका और स्थान बदलने से किस तरह पत्थर का चरित्र और उसकी संस्कृति बदल जाती है।
पत्थर की जिस बैंच पर मैं बैठा हूँ, वह नितान्त कठोर, भाव-रहित, ठण्डी और कष्ट दायक है। लेकिन यह पत्थर, जिससे नेताजी की यह सुन्दर मूर्ति ढाली गई है, अपने वर्तमान रूप में किनता हृदयस्पर्शी और प्रेरणादायक हो गया है। पत्थर एक ही है, लेकिन बदली हुई आकृतियों ने किस तरह उसके चरित्र को बदल दिया है। पत्थर वह भी है, जो रास्ता अवरुद्ध करने के लिए प्रयोग किया जाता है और वह भी जो महापुरुषों की प्रतिमाओं में ढलकर आने वाली पीढ़ी के लिए प्रेरणा और गौरव का स्रोत बना रहता है।
महत्त्व, कठोरता के प्रतीक पाषाण के एक टुकड़े का नहीं, उससे लिए गए काम का है। वही पत्थर जिसने मूर्तियों और प्रतीकों में ढलकर हमारी गौरवपूर्ण सभ्यता की सुरक्षा की है, जब अपने स्तर से गिरता है, तो दंगे पर उतारू भीड़ के हाथों में पड़कर समाचार-पत्रों में पथराव और तोड़-फोड़ की सुर्खी बन जाता है।
शाम कुछ और नीचे उतर आई है। पार्क में पंक्तिबद्ध खड़े अशोक और गुलमोहर के पेड़ धुंध की चादर लपेटकर सो जाने की तैयारी में हैं। मैं शरद ऋतु की इस ठण्डी शाम में भी घर छोड़कर इस पार्क में क्यों आ गया हूँ ? एक प्रश्न स्वयं से पूछता हूं और अनुभव करता हूँ कि जंगलों और खुले मैदानों में घूमने की वह प्रवृत्ति अभी आदमी के भीतर से लुप्त नहीं हुई है, जिसे लेकर आदिमानव ने अपनी यात्रा आरम्भ की थी। वह नगरों और महानगरों में भारी भीड़ और बड़े-बड़े मकान जुटाकर भी समय मिलते ही उन मैदानों की तरफ, उस खुले स्थानों और जंगलों की ओर भागता है जिनके शताब्दियों पुराने प्रतिबिम्ब आज भी उसके भीतर कहीं-न-कहीं छुपे बैठे हैं।
लगता है, सम्बन्ध टूट जाते हैं, लेकिन मरते नहीं हैं।
हजारों-लाखों साल की इस यात्रा में आदमी प्रकृति से निस्संदेह दूर हो गया है। लेकिन अतीत से उसका सम्बन्ध टूटा नहीं है। जब भी अवसर मिलता है, वह उन हरे-भरे मैदानों, उन वृक्षों की ओर भागता है जो कभी किसी मोड़ पर उससे बिछुड़ गए थे।
शाम कुछ और नीचे ढलक आई है। वृक्षों के निस्तब्ध आकार और नेताजी की प्रतिमा, यह सब मेरे सामने हैं पर धुंध के फैलाव से अपने-आपको बचा नहीं पा रहे हैं।
मैं यह सोचकर दुखी हो गया हूं कि यह शाम वैसी नहीं है, जैसी वर्षों पहले कभी मेरे कस्बे में हुआ करती थी। खुली-खुली, स्पष्ट और उदार। शाम की लालिमा फूलती तो यों लगता जैसे प्रकृति मानव-जाति के चरणों में स्वर्ण-पराग अर्पित करने चली आई हो।
लेकिन यह नगर है जहाँ साँझ आती तो है, लेकिन लालिमा कहीं दिखाई नहीं देती। यह गुलाब कहीं नहीं बिखरता जो हृदय में तरंग और मस्तिष्क में जोश भर दिया करता है। बस यहाँ तो सूरज अस्त होता है, शाम पड़ती है, आकाश से कोहरा उतरता है तो बिजली की चकाचौंध कर देने वाला प्रकाश भी सिमटकर अपने-आपमें केन्द्रिय होने का प्रयास करने लगता है।
तेजी से गुजरती हुई शाम मुझसे कहती है कि इससे पहले कि पार्क के हरे-भरे वृक्ष आँखों से ओझल हो जाएँ और उस आदर्श मानव की छवि अन्धकार में लुप्त होने लगे, जो पत्थर में छलककर सुभाषचन्द्र बोस बनी मेरे सामने स्थित है, मुझे यहाँ से चले जाना चाहिए। अपने उस घर की ओर जहाँ हर रात मुझे सुरक्षा और शरण मिलती है।
लेकिन मैं बैंच से उठता नहीं हूँ। इच्छा होती है, अभी कुछ देर और बैठूं। इस खुले मैदान में, इस पार्क में तब तक बैठूं जब तक विद्युत प्रकाश का फव्वारा एक बार फिर इस मूर्ति के चेहरे को आलोकित न कर दे।
बिजलियाँ जल उठी हैं। मेरे सामने के वृक्ष और मूर्ति का आकार फिर मुझे अपने होने का एहसास दिला रहा है। ये दोनों कितने महान् हैं ? ये वृक्ष, जो रात और दिन के एक-एक पल मेरे द्वारा फैलाई गई गंदगी को, प्रदूषण को, विष को उतारते रहते हैं अपने कंठ के भीतर और उगलते रहते हैं वह शीतल स्वच्छ और आक्सीजन से भरी हवा जिसमें स्वस्थ और जीवित रह सकूं। कितने महान् हैं ये !
यह प्रतिमा उस महापुरुष की है जिसने मेरा और मेरी दासता का सारा दुःख अपने में समेटा और साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा मेरे देश के पैरों में पड़ी हुई जंजीरों को काटने के लिए चल दिया ताकि मैं स्वतन्त्र हो सकूँ, अपनी धरती पर गर्व के साथ सिर उठाकर चल सकूँ। कितने महान् थे वे लोग !
लेकिन यह क्या ?
मैं पीड़ा से क्यों भर गया हूँ ?
क्या इसलिए कि आने-जाने वाला कोई भी व्यक्ति इनमें से किसी की तरफ भी नहीं देख रहा है ? लोग या तो गप्प-शप करते प्रतिमा के नीचे से गुजर रहे हैं, या फिर आस-पास स्थित बैंचों पर कुछ समय के लिए बैठते हैं और अपने रास्ते पर आगे बढ़ जाते हैं।
मैं अनुभव करता हूँ कि इस प्रतिमा और इन वृक्षों की भाँति मैं भी इनलोगों के लिए सर्वथा अर्थहीन हूँ।
इन लोगों के लिए मैं कोई जीवित व्यक्ति नहीं हूँ। पत्थर का निर्जीव टुकड़ा हूँ, जो न कुछ सुनता है और न समझता है। वे अपने छिपे रहस्य इस प्रकार व्यक्त कर रहे हैं, जैसे अब दीवारों के पास तो क्या, आदमी के पास भी सुनने के लिए कान नहीं रहे हैं।
अभी-अभी दो युवक मेरे सामने बैंच पर आकर बैठे हैं। इनके पीछे बोस की प्रतिमा निस्तब्ध खड़ी है। ये उसकी ओर नहीं देखते, अपने-आपमें गुम हैं।
एक युवक की आवाज हवा की हल्की लहरों पर उड़ती हुई मेरे कानों तक आई है।
‘यार, बहुत दिनों से इस नगर में दंगा नहीं हुआ। पिछली बार की तनातनी में अच्छा दाँव बैठा था। सारा बाजार आग की लपटों में धू-धू करके जल रहा था। व्यापारी अपनी-अपनी दुकानें बन्द करके अपने घरों को भाग रहे थे। कई ऐसे भी थे, जिन्हें दुकानों में ताला डालने का अवसर ही नहीं मिला। मैंने जमकर हाथ मारा। अब जो तुम मेरे घर में देख रहे हो, यह सारा सामान...’
युवक अभी अपनी बात पूरी नहीं कर पाया है कि उसके साथी का जिज्ञासापूर्ण स्वर मेरे कानों में गूँज उठा है—
‘क्या पुलिस नहीं थी उस समय ?’’
‘थी, लेकिन वह भी वही सब कर रही थी।’ युवक का उत्तर था।
मैंने उनकी ओर से ध्यान हटाकर सोचा, क्या इन लोगों को यह ज्ञात नहीं है कि अनजान व्यक्ति उनकी बातें सुन रहा है और उन घिनौने अपराधों को जान रहा है, जो सांप्रदायिक दंगों के दौरान उनके द्वारा किये गए हैं। लेकिन वे मेरे अस्तित्व के प्रति सचेत नहीं हैं।
अनुभव कहता है कि लोग केवल परिचितों के प्रति ही सचेत रहते हैं, अपरिचितों के प्रति नहीं। वे अपने रहस्यों को छिपाते हैं जान-पहचान वालों से, अनजान और अजनबी के सामने ते वो नंगे हो जाते हैं, जैसे स्नान घर में दर्पण के सामने आदमी निःसंकोच अपने वस्त्र उतार देता है।
मुझे वह रिक्शा वाला याद आता है जिसकी रिक्शा में यात्रा करते हुए मेरे एक मित्र ने मुझे वे बातें बताई थीं, जो उसके जीवन का सबसे बड़ा रहस्य रही थीं। और मैं सोचता रह गया था कि मेरा मित्र इस रिक्शा-चालक को जीता-जागता आदमी नहीं मानता है या वह यह समझ बैठा है कि यह व्यक्ति जो इस समय रिक्शा खींच रहा है, सुनने और समझने की शक्ति से वंचित है। नहीं, ऐसा नहीं है, मेरे विवेक ने मुझे समझाया, लोगों की प्रवृत्ति ही यह है कि वे अपने गुनाहों को साधारणतया उन लोगों से छुपाते हैं जो उनके परिचित हों, अपने हों और किसी भी समय खतरा बनने की सम्भावना रखते हों।
यहाँ इन युवकों का कोई परिचित नहीं है। मैं हूँ और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की प्रतिमा है, और हम दोनों ही इनके लिए अजनबी हैं।
अचानक मेरा ध्यान फिर इन युवकों की तरफ चला गया है। एक युवक दूसरे से कह रहा है—
‘तुम्हें याद है, उन दिनों एक व्यक्ति की हत्या भी मैंने की थी।’
मैं इस बात का उत्तर नहीं सुन पाता हूँ। मेरी स्मृति में वह नोआखली उभर आता है जहाँ साम्प्रदायिक दंगों को रोकने के लिए, आदमी को आदमी बनाने के लिए, शान्ति स्थापित करने के लिए, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने एक लम्बी अनिश्चितकालीन भूख-हड़ताल की थी।
राष्ट्रपिता का बूढ़ा चेहरा सामने है—उनकी आँखों में दुःख और पीड़ा की टीस है, टूटती-जुड़ती हुई आस है, वह मुझसे पूछते हैं—
‘क्या लोग इतनी जल्दी भूल गए हैं ?’
और इससे पहले कि यह सवाल मैं युवकों से पूछूँ, देखता हूँ कि दोनों हाथ में हाथ डाले पार्क के मुख्य द्वार की ओर बढ़ रहे हैं।
अब मैं फिर अकेला हूँ....
मैं भी और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की प्रतिमा भी....कुछ ही मिनट बीते हैं, एक बूढ़ा व्यक्ति अपनी अधेड़ पत्नी के साथ पार्क के मुख्य द्वार से होता हुआ मेरे दायीं ओर वाली बेंच पर आ बैठा है। अपने हाव-भाव से वह मँजा हुआ दुनिया-दार आदमी दिखाई देता है।
बहुत ही धीमी एक आवाज मेरे कानों में पड़ती है। बूढ़ा व्यक्ति अपनी पत्नी से कह रहा है।
‘दो लाख से कम पर हाँ नहीं करनी है। पैसे वाला परिवार है, और अपना बेटा भी कौन-सा किसी से कम है ! आखिर डॉक्टर है। क्या पढाई में दो लाख से कम लगे होंगे ?’
‘लेकिन इस सम्बन्ध में बेटे से तो राय ले ली होती।’ वैवाहिक दास्ता की मार सहती हुई महिला ने उत्तर दिया।
‘पगला तो नहीं गई है तू।’—बूढ़े का स्वर क्रोध से भर गया है—‘बाप बेटे से राय लेने बैठेगा। वह तो निरा मूर्ख है, बड़ा आदर्शवादी बनता है। उसका सारा आदर्श फटे गुब्बारे की हवा के समान निकल जाएगा, जब हाथ में फूटी कौड़ी नहीं होगी।’
महिला ने पति की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। लगता है, वह इस तर्क से सहमत हो गई है कि पुत्र-रत्न भाग्य ने दिया है तो उसका मूल्य न लेना मूर्खता ही है।
मैं आश्चर्य से इस दम्पती की ओर देखता हूँ और अचानक मेरी दृष्टि पुनः नेताजी की प्रतिमा की ओर उठ जाती है। मुझे लगता है, जैसे उसके निकट ही एक और आदमकद मूर्ति खड़ी है। भारत के एक ओर महापुरुष की...जिसका नाम विवेकानन्द था—स्वामी विवेकानन्द !
मैं अंधेरे को चीरती हुई बिजली की हल्की रोशनी में ध्यानपूर्वक देखता हूँ कल्पना होती है, जैसे स्वामी विवेकानन्द आश्चर्य और निराशा के सागर में डूबे इस दम्पती की ओर निहार रहे हैं। उनके मुख पर दुख की छाप है और आँखों में उस लम्बें संघर्ष का इतिहास जो कुरीतियों के विरुद्ध उनके द्वारा चलाया गया था।
मेरे बिलकुल सामने भारत के महान् सपूत नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की आदमकद प्रतिमा है, काले पत्थर की। किसी सिद्धहस्त मूर्तिकार द्वारा तराशी गई शानदार प्रतिमा। एक नजर मैं पत्थरों में ढली हुई नेताजी की मुखाकृति की ओर देखता हूँ और फिर अचानक मेरा ध्यान डूबती हुई साँझ के धुँधले-धुँधले दृश्य की ओर चला जाता है। आता हुआ अंधकार धरती पर फैले उजाले को परास्त कर रहा है।
यह शाम दिन-रात की भौगोलिक व्यवस्था की शाम ही नहीं है, प्रकृति के विधानानुसार यह शाम सूरज के अस्त होने पर उत्पन्न होने वाली शाम ही नहीं है, मुझे लगता है यह शाम उच्च मानवीय आदर्शों और गौरवपूर्ण सामाजिक मान्यताओं के अन्त में होने की शाम भी है। मैं एक बार फिर नेताजी की सुन्दर एवं वैभवशाली प्रतिमा की तरफ देखता हूँ।
मेरे नीचे सफेद पत्थर से बनी हुई बैंच है। बैंच पर इस समय मैं निपट अकेला हूँ। टूटे-टूटे बिखरे-बिखरे विचार मेरे मस्तिष्क के सागर में छोटी-छोटी नौकाओं की तरह तैर रहे हैं। अचानक मेरा ध्यान स्वयं अपने अस्तित्व पर केन्द्रित हो जाता है। मैं अपने नीचे पत्थर की कठोरता का अनुभव करता हूँ। कितना निर्दयी और भावहीन है यह पत्थर ! अपने दुखते हुए शरीर को आराम देने के लिए मैं बाईं ओर करवट लेता हूँ। सोचता हूँ, शायद वह पाषाण युग अभी समाप्त नहीं हुआ है, जिसे मानव-जाति अपने विकास में लाखों वर्ष पीछे छोड़ आई है। पहले यह पत्थर मानव के हाथ में था और अब उसके भीतर है।
अपने सामने से गुजरते हुए मुझे पत्थर के अनेक लोग दिखाई देते हैं। पथरीली बैंच से भी अधिक जड़ और भावविहीन ! पाषाण युग से चलकर आदमी किस तरह स्वयं पाषाण होता जा रहा है, सोचकर एक टीस-सी मेरे मन में होती है। लेकिन तभी इस सोच को एक और सोच काटती हुई गुजर जाती है कि भूमिका और स्थान बदलने से किस तरह पत्थर का चरित्र और उसकी संस्कृति बदल जाती है।
पत्थर की जिस बैंच पर मैं बैठा हूँ, वह नितान्त कठोर, भाव-रहित, ठण्डी और कष्ट दायक है। लेकिन यह पत्थर, जिससे नेताजी की यह सुन्दर मूर्ति ढाली गई है, अपने वर्तमान रूप में किनता हृदयस्पर्शी और प्रेरणादायक हो गया है। पत्थर एक ही है, लेकिन बदली हुई आकृतियों ने किस तरह उसके चरित्र को बदल दिया है। पत्थर वह भी है, जो रास्ता अवरुद्ध करने के लिए प्रयोग किया जाता है और वह भी जो महापुरुषों की प्रतिमाओं में ढलकर आने वाली पीढ़ी के लिए प्रेरणा और गौरव का स्रोत बना रहता है।
महत्त्व, कठोरता के प्रतीक पाषाण के एक टुकड़े का नहीं, उससे लिए गए काम का है। वही पत्थर जिसने मूर्तियों और प्रतीकों में ढलकर हमारी गौरवपूर्ण सभ्यता की सुरक्षा की है, जब अपने स्तर से गिरता है, तो दंगे पर उतारू भीड़ के हाथों में पड़कर समाचार-पत्रों में पथराव और तोड़-फोड़ की सुर्खी बन जाता है।
शाम कुछ और नीचे उतर आई है। पार्क में पंक्तिबद्ध खड़े अशोक और गुलमोहर के पेड़ धुंध की चादर लपेटकर सो जाने की तैयारी में हैं। मैं शरद ऋतु की इस ठण्डी शाम में भी घर छोड़कर इस पार्क में क्यों आ गया हूँ ? एक प्रश्न स्वयं से पूछता हूं और अनुभव करता हूँ कि जंगलों और खुले मैदानों में घूमने की वह प्रवृत्ति अभी आदमी के भीतर से लुप्त नहीं हुई है, जिसे लेकर आदिमानव ने अपनी यात्रा आरम्भ की थी। वह नगरों और महानगरों में भारी भीड़ और बड़े-बड़े मकान जुटाकर भी समय मिलते ही उन मैदानों की तरफ, उस खुले स्थानों और जंगलों की ओर भागता है जिनके शताब्दियों पुराने प्रतिबिम्ब आज भी उसके भीतर कहीं-न-कहीं छुपे बैठे हैं।
लगता है, सम्बन्ध टूट जाते हैं, लेकिन मरते नहीं हैं।
हजारों-लाखों साल की इस यात्रा में आदमी प्रकृति से निस्संदेह दूर हो गया है। लेकिन अतीत से उसका सम्बन्ध टूटा नहीं है। जब भी अवसर मिलता है, वह उन हरे-भरे मैदानों, उन वृक्षों की ओर भागता है जो कभी किसी मोड़ पर उससे बिछुड़ गए थे।
शाम कुछ और नीचे ढलक आई है। वृक्षों के निस्तब्ध आकार और नेताजी की प्रतिमा, यह सब मेरे सामने हैं पर धुंध के फैलाव से अपने-आपको बचा नहीं पा रहे हैं।
मैं यह सोचकर दुखी हो गया हूं कि यह शाम वैसी नहीं है, जैसी वर्षों पहले कभी मेरे कस्बे में हुआ करती थी। खुली-खुली, स्पष्ट और उदार। शाम की लालिमा फूलती तो यों लगता जैसे प्रकृति मानव-जाति के चरणों में स्वर्ण-पराग अर्पित करने चली आई हो।
लेकिन यह नगर है जहाँ साँझ आती तो है, लेकिन लालिमा कहीं दिखाई नहीं देती। यह गुलाब कहीं नहीं बिखरता जो हृदय में तरंग और मस्तिष्क में जोश भर दिया करता है। बस यहाँ तो सूरज अस्त होता है, शाम पड़ती है, आकाश से कोहरा उतरता है तो बिजली की चकाचौंध कर देने वाला प्रकाश भी सिमटकर अपने-आपमें केन्द्रिय होने का प्रयास करने लगता है।
तेजी से गुजरती हुई शाम मुझसे कहती है कि इससे पहले कि पार्क के हरे-भरे वृक्ष आँखों से ओझल हो जाएँ और उस आदर्श मानव की छवि अन्धकार में लुप्त होने लगे, जो पत्थर में छलककर सुभाषचन्द्र बोस बनी मेरे सामने स्थित है, मुझे यहाँ से चले जाना चाहिए। अपने उस घर की ओर जहाँ हर रात मुझे सुरक्षा और शरण मिलती है।
लेकिन मैं बैंच से उठता नहीं हूँ। इच्छा होती है, अभी कुछ देर और बैठूं। इस खुले मैदान में, इस पार्क में तब तक बैठूं जब तक विद्युत प्रकाश का फव्वारा एक बार फिर इस मूर्ति के चेहरे को आलोकित न कर दे।
बिजलियाँ जल उठी हैं। मेरे सामने के वृक्ष और मूर्ति का आकार फिर मुझे अपने होने का एहसास दिला रहा है। ये दोनों कितने महान् हैं ? ये वृक्ष, जो रात और दिन के एक-एक पल मेरे द्वारा फैलाई गई गंदगी को, प्रदूषण को, विष को उतारते रहते हैं अपने कंठ के भीतर और उगलते रहते हैं वह शीतल स्वच्छ और आक्सीजन से भरी हवा जिसमें स्वस्थ और जीवित रह सकूं। कितने महान् हैं ये !
यह प्रतिमा उस महापुरुष की है जिसने मेरा और मेरी दासता का सारा दुःख अपने में समेटा और साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा मेरे देश के पैरों में पड़ी हुई जंजीरों को काटने के लिए चल दिया ताकि मैं स्वतन्त्र हो सकूँ, अपनी धरती पर गर्व के साथ सिर उठाकर चल सकूँ। कितने महान् थे वे लोग !
लेकिन यह क्या ?
मैं पीड़ा से क्यों भर गया हूँ ?
क्या इसलिए कि आने-जाने वाला कोई भी व्यक्ति इनमें से किसी की तरफ भी नहीं देख रहा है ? लोग या तो गप्प-शप करते प्रतिमा के नीचे से गुजर रहे हैं, या फिर आस-पास स्थित बैंचों पर कुछ समय के लिए बैठते हैं और अपने रास्ते पर आगे बढ़ जाते हैं।
मैं अनुभव करता हूँ कि इस प्रतिमा और इन वृक्षों की भाँति मैं भी इनलोगों के लिए सर्वथा अर्थहीन हूँ।
इन लोगों के लिए मैं कोई जीवित व्यक्ति नहीं हूँ। पत्थर का निर्जीव टुकड़ा हूँ, जो न कुछ सुनता है और न समझता है। वे अपने छिपे रहस्य इस प्रकार व्यक्त कर रहे हैं, जैसे अब दीवारों के पास तो क्या, आदमी के पास भी सुनने के लिए कान नहीं रहे हैं।
अभी-अभी दो युवक मेरे सामने बैंच पर आकर बैठे हैं। इनके पीछे बोस की प्रतिमा निस्तब्ध खड़ी है। ये उसकी ओर नहीं देखते, अपने-आपमें गुम हैं।
एक युवक की आवाज हवा की हल्की लहरों पर उड़ती हुई मेरे कानों तक आई है।
‘यार, बहुत दिनों से इस नगर में दंगा नहीं हुआ। पिछली बार की तनातनी में अच्छा दाँव बैठा था। सारा बाजार आग की लपटों में धू-धू करके जल रहा था। व्यापारी अपनी-अपनी दुकानें बन्द करके अपने घरों को भाग रहे थे। कई ऐसे भी थे, जिन्हें दुकानों में ताला डालने का अवसर ही नहीं मिला। मैंने जमकर हाथ मारा। अब जो तुम मेरे घर में देख रहे हो, यह सारा सामान...’
युवक अभी अपनी बात पूरी नहीं कर पाया है कि उसके साथी का जिज्ञासापूर्ण स्वर मेरे कानों में गूँज उठा है—
‘क्या पुलिस नहीं थी उस समय ?’’
‘थी, लेकिन वह भी वही सब कर रही थी।’ युवक का उत्तर था।
मैंने उनकी ओर से ध्यान हटाकर सोचा, क्या इन लोगों को यह ज्ञात नहीं है कि अनजान व्यक्ति उनकी बातें सुन रहा है और उन घिनौने अपराधों को जान रहा है, जो सांप्रदायिक दंगों के दौरान उनके द्वारा किये गए हैं। लेकिन वे मेरे अस्तित्व के प्रति सचेत नहीं हैं।
अनुभव कहता है कि लोग केवल परिचितों के प्रति ही सचेत रहते हैं, अपरिचितों के प्रति नहीं। वे अपने रहस्यों को छिपाते हैं जान-पहचान वालों से, अनजान और अजनबी के सामने ते वो नंगे हो जाते हैं, जैसे स्नान घर में दर्पण के सामने आदमी निःसंकोच अपने वस्त्र उतार देता है।
मुझे वह रिक्शा वाला याद आता है जिसकी रिक्शा में यात्रा करते हुए मेरे एक मित्र ने मुझे वे बातें बताई थीं, जो उसके जीवन का सबसे बड़ा रहस्य रही थीं। और मैं सोचता रह गया था कि मेरा मित्र इस रिक्शा-चालक को जीता-जागता आदमी नहीं मानता है या वह यह समझ बैठा है कि यह व्यक्ति जो इस समय रिक्शा खींच रहा है, सुनने और समझने की शक्ति से वंचित है। नहीं, ऐसा नहीं है, मेरे विवेक ने मुझे समझाया, लोगों की प्रवृत्ति ही यह है कि वे अपने गुनाहों को साधारणतया उन लोगों से छुपाते हैं जो उनके परिचित हों, अपने हों और किसी भी समय खतरा बनने की सम्भावना रखते हों।
यहाँ इन युवकों का कोई परिचित नहीं है। मैं हूँ और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की प्रतिमा है, और हम दोनों ही इनके लिए अजनबी हैं।
अचानक मेरा ध्यान फिर इन युवकों की तरफ चला गया है। एक युवक दूसरे से कह रहा है—
‘तुम्हें याद है, उन दिनों एक व्यक्ति की हत्या भी मैंने की थी।’
मैं इस बात का उत्तर नहीं सुन पाता हूँ। मेरी स्मृति में वह नोआखली उभर आता है जहाँ साम्प्रदायिक दंगों को रोकने के लिए, आदमी को आदमी बनाने के लिए, शान्ति स्थापित करने के लिए, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने एक लम्बी अनिश्चितकालीन भूख-हड़ताल की थी।
राष्ट्रपिता का बूढ़ा चेहरा सामने है—उनकी आँखों में दुःख और पीड़ा की टीस है, टूटती-जुड़ती हुई आस है, वह मुझसे पूछते हैं—
‘क्या लोग इतनी जल्दी भूल गए हैं ?’
और इससे पहले कि यह सवाल मैं युवकों से पूछूँ, देखता हूँ कि दोनों हाथ में हाथ डाले पार्क के मुख्य द्वार की ओर बढ़ रहे हैं।
अब मैं फिर अकेला हूँ....
मैं भी और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की प्रतिमा भी....कुछ ही मिनट बीते हैं, एक बूढ़ा व्यक्ति अपनी अधेड़ पत्नी के साथ पार्क के मुख्य द्वार से होता हुआ मेरे दायीं ओर वाली बेंच पर आ बैठा है। अपने हाव-भाव से वह मँजा हुआ दुनिया-दार आदमी दिखाई देता है।
बहुत ही धीमी एक आवाज मेरे कानों में पड़ती है। बूढ़ा व्यक्ति अपनी पत्नी से कह रहा है।
‘दो लाख से कम पर हाँ नहीं करनी है। पैसे वाला परिवार है, और अपना बेटा भी कौन-सा किसी से कम है ! आखिर डॉक्टर है। क्या पढाई में दो लाख से कम लगे होंगे ?’
‘लेकिन इस सम्बन्ध में बेटे से तो राय ले ली होती।’ वैवाहिक दास्ता की मार सहती हुई महिला ने उत्तर दिया।
‘पगला तो नहीं गई है तू।’—बूढ़े का स्वर क्रोध से भर गया है—‘बाप बेटे से राय लेने बैठेगा। वह तो निरा मूर्ख है, बड़ा आदर्शवादी बनता है। उसका सारा आदर्श फटे गुब्बारे की हवा के समान निकल जाएगा, जब हाथ में फूटी कौड़ी नहीं होगी।’
महिला ने पति की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। लगता है, वह इस तर्क से सहमत हो गई है कि पुत्र-रत्न भाग्य ने दिया है तो उसका मूल्य न लेना मूर्खता ही है।
मैं आश्चर्य से इस दम्पती की ओर देखता हूँ और अचानक मेरी दृष्टि पुनः नेताजी की प्रतिमा की ओर उठ जाती है। मुझे लगता है, जैसे उसके निकट ही एक और आदमकद मूर्ति खड़ी है। भारत के एक ओर महापुरुष की...जिसका नाम विवेकानन्द था—स्वामी विवेकानन्द !
मैं अंधेरे को चीरती हुई बिजली की हल्की रोशनी में ध्यानपूर्वक देखता हूँ कल्पना होती है, जैसे स्वामी विवेकानन्द आश्चर्य और निराशा के सागर में डूबे इस दम्पती की ओर निहार रहे हैं। उनके मुख पर दुख की छाप है और आँखों में उस लम्बें संघर्ष का इतिहास जो कुरीतियों के विरुद्ध उनके द्वारा चलाया गया था।
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